Wednesday, November 18, 2009

अनिल पुसदकर के ढाबे की वाट लगाने का ज़िम्मेदार कौन ? जल्दी बताइये..........




अनिल पुसदकरजी भयंकर मूडी आदमी हैं

ये तो हम सब जानते ही हैं

बड़ी सुलझी किस्म के उलझे हुए

पत्रकार और समाजसेवी हैं,

ये भी हम जानते हैं लेकिन एक नई बात पता चली,

वे बड़े प्रयोगधर्मी भी हैंनए नए काम करते रहते हैं

और अच्छा करते हैं लेकिन उन्हें सलाह देने वाले शरद कोकास,

बी एस पाबला, राजकुमार ग्वालानी और ललित शर्मा जैसे

मित्र उनकी वाट लगा डालते हैं



अभी हाल ही, अनिलजी ने रायपुर में एक शानदार ढाबा खोला,

ये सोच कर कि खूब चलेगा और इस काम में कमाई भी खूब है ,

आलीशान सजावट भी की और कैश काउंटर पर सुन्दर सुकन्या

भी बिठाई और बोर्ड भी लगाया कि हमारे यहाँ बिल्कुल घर जैसा

खाना मिलता हैऔर तो और उधार की महाकर्षक सुविधा भी दी

लेकिन बढ़िया से बढ़िया खाना होने के बावजूद कोई ग्राहक खाने

के लिए नहीं आया ?



बताओ क्यों ?

क्यों ?

क्यों ?

क्यों ?



आपके जवाब के लिए समय सीमा 4 घंटे


और आपका समय शुरू होता है अब.............



नोट : जवाब इसी आलेख में छिपा छपा है






17 comments:

Unknown said...

लोग बेवकूफ हैं क्या? बिल्कुल घर जैसा खाना खाने के लिये भला ढाबा क्यों जायेंगे?

Urmi said...

मेरे ख्याल से अनिलजी को इतनी सजावट करवाने की ज़रूरत नहीं थी बल्कि सीधा साधा सा होटल रहता और घर जैसा खाना मिलता है ये नहीं कहते तो शायद ग्राहक ज़रूर आते!

संगीता पुरी said...

शरद कोकास, बी एस पाबला, राजकुमार ग्वालानी और ललित शर्मा जैसे मित्र उनकी वाट लगा डालते हैं .. उन्‍होने ही कुछ गडबड की होगी .. पर क्‍या गडबड ये तो आपने नहीं लिखा !!

Murari Pareek said...

log ghar ka khana chhod kar to aate hi hain agar yahaan bhi ghar jaisaa khana milega to kaun khayeg!!!!!1

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

अवधिया जी वाला जवाब ही हमारा भी जवाब माना जाए...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

घर का खाना होटल पर क्यों खायें?

डॉ टी एस दराल said...

कहीं ये तो नही लिखा था ---यहाँ खा ना ।

राज भाटिय़ा said...

जी के अवधिया जी ने सही जबाब दिया, भई घर जेसा खाना ही खाना हो तो पेसा खर्च करने कि क्य जरुरत

बाल भवन जबलपुर said...

बस खत्री जी बोर्ड क्या लगवाया चौकड़ी ने डाबे की वाट लग गई
"अरे ,अब घर जैसा खाना कोई दाबे पे क्यों खाने आएगा...अब आप भी अजीब है
घर का खाना खाके ऊबे तरसे लोग डाबे पे डाबे जैसा खाने ही जाते हैं न ? "

PD said...

pahla vala hi mera javaab bhi hai.. :)

Anil Pusadkar said...

ले देकर काम शुरू किया था और उदघाटन मे ही वाट लग गई।

दीपक 'मशाल' said...

Haan ji wahi.. jab ghar jaisa hi khana jhelna hai to ghar par hi na khaa len fir???
:)

Khushdeep Sehgal said...

अनिल जी ठहरे मूडी और थोड़े गर्म मिजाज...
पहले ही ग्राहक ने आकर ये कह दिया...ढाबे में जो सबसे गरम है...वो ले आओ...
अनिल जी ने जवाब दिया...तवा है सबसे गरम...लाऊं...बैठेगा क्या...
बस अनिल जी के ये तेवर देखकर ग्राहक ऐसे भजे कि किसी ने दोबारा आने की हिम्मत ही नहीं दिखाई...

जय हिंद...

विवेक रस्तोगी said...

घर जैसा खाने के लिए ढाबा....???

Gyan Darpan said...

कहीं उधार की महाकर्षक सुविधा ने तो वाट नहीं लगा दी

Anil Pusadkar said...

वैसे अलबेला जी मैने ढाबा तो नही लेकिन एक रेस्त्रां ज़रूर चलाया था।शहर के बीच में,बहुत बढिया लोकेशन खूब लम्बा-चौड़ा फ़्रंट,डबल मंज़िल और व्यावसायिक ईलाके में।उसे मैने ट्रांसपोर्ट मे भरपूर नुकसान उठाने वाले छोटे भाई सुनील के ज़िम्मे सौंपा था।सुनील बहुत ही सीधा-सादा सतयुग का माडल है।उसने ट्रांसपोर्ट की तरह रेस्त्रां मे भी नुकसान ही किया।नौकरो पर भरोसा उसे इस बार भी ले ड़ूबा और अगर मैं कहता नौकर चोर है तो उसका जवाब रहता कि भगवान सब देखता है।मैं कहता कि तेरे से ज्यादा नौकर कमा रहे हैं तो कह्ता था कि चोरी करके कोई गरीब अमीर बना है क्या?मै कहा करता था कि गरीब तो अमीर नही बना मगर तू मुझे ज़रूर गरीब बना देगा।और लगातार नुकसान सच मे ऐसा साबित हो रहा था इसलिये मैने उस रेस्त्रां के तीनों शटर एक साथ कुछ ही महीनों मे गिरा दिये।

शरद कोकास said...

ऐसे सवाल मत पूछा करो भैया आपको भी अपनी वाट लगवानी है क्या ..?

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