Saturday, September 18, 2010

हमारे लोकतन्त्र की तरह भ्रष्ट हो गया है





पहले भी फटते थे बादल

लेकिन रोज़ नहीं, कभी-कभार


पहले भी गिरती थी बिजलियाँ

परन्तु साल में एक-दो बार


आते थे भूकम्प और भूचाल भी

मगर यदा-कदा, वार-त्यौहार


अब तो ये दैनन्दिन नाटक है

प्रभु ! ये आपका कैसा त्राटक है ?

लगता है आपका तंत्र भी,

हमारे लोकतन्त्र की तरह भ्रष्ट हो गया है

इसीलिए

मानव जीवन में इतना कष्ट हो गया है


अरे हटाओ अपने दागी अधिकारियों को

जो हमारे मर्मस्थलों में ऊँगली अड़ा रहे हैं


जिन खेतों को पानी चाहिए वे सूखे हैं

और बोरियों में भरे अनाज को सड़ा रहे हैं


विनती सुनलो रब जी

हम लोग बहुत ही त्रस्त हैं

पूरा संसार आपदाग्रस्त है




10 comments:

राणा प्रताप सिंह (Rana Pratap Singh) said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|
प्रभु जी तक सीधे आवाज पहुंचे ऐसी कामना है|
ब्रह्माण्ड

देवेन्द्र पाण्डेय said...

लोकतंत्र भ्रष्ट नहीं हुआ..तंत्र के लोग भ्रष्ट हो रहे हैं.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चिन्ता व्यक्त करती अच्छी रचना ...

शरद कोकास said...

हाँ अब तो सुन ही लेना चाहिये बहुत हो गया ना ?

प्रवीण त्रिवेदी said...

देखिये कब सुनी जाती है आपकी ! ....हो सकता है वहां भी यही अंधेर हो ?

प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI

प्राइमरी का मास्टर

फतेहपुर

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

http://charchamanch.blogspot.com/

Aruna Kapoor said...

....वाह वाह अलबेला जी!...आप ने इस लोगों को सही पहचाना!...ये ऐसे ही है!..सटिक व्यंग्य!

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

कल गल्ती से तारीख गलत दे दी गयी ..कृपया क्षमा करें ...साप्ताहिक काव्य मंच पर आज आपकी रचना है


http://charchamanch.blogspot.com/2010/09/17-284.html

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

‘हम लोग बहुत ही त्रस्त हैं’
नहीं जी हम तो मस्त हैं :)

M VERMA said...

जिन खेतों को पानी चाहिए वे सूखे हैं
और बोरियों में भरे अनाज को सड़ा रहे हैं
कड़वा सच है .. पर सच तो सच है

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